देश की आजादी के सात दशक हो चले है जिसमें अब भारत ने बैलगाड़ियों से लेकर एयर इंडिया तक का सफ़र तय किया है| इसके साथ ही विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में भी कई उपलब्धियां हासिल हो चुकी है लेकिन देश की रीढ़ कहे जाने वाले किसानो की समस्याएं आज भी वही की वही है| आजादी के इतने लंबे अरसे के बाद भी किसानो की समस्याओं का वास्तविक समाधान नहीं निकाला जा सका है ताकि उन्हें अपनी फसल की पैदावार का भरपूर लाभ मिल सके|
यद्यपि ऐसा नहीं है कि किसानों के हित में कुछ किया नहीं गया| किसानों और खेती बाड़ी को प्रोत्साहित करने के लिए अनेक प्रकार की सरकारी छूट प्रदान की गई जैसे बिजली,पानी, खाद, बीज, कीटनाशक सभी खेती सबंधित आवश्यकताओं को रियायती मूल्यों पर उपलब्ध कराई गयीं, कृषि सबंधी सभी उपकरणों को भी विशेष छूट के अंतर्गत रखा गया और तो और एक अकेला खेती बाड़ी ही ऐसा क्षेत्र है जिससे होने वाली आय को आय कर मुक्त रखा गया| समय समय पर किसानों के कर्ज भी माफ़ किए गए परन्तु जो भी कदम किसानों के हित में उठाए गए सभी उपाय अल्पकालिक लाभकारी बन कर रह गए और समय के बदलाव के साथ सभी उपाय नाकाफी सिद्ध हुए|
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किसानो के लिए आजीविका चला पाना हो रहा मुश्किल
जब देश को आजादी प्राप्त हुई थी देश की जी.डी.पी.में कृषि का योगदान 55% था जो वर्तमान में घटकर मात्र 15% ही रह गया है जबकि आबादी बढ़ने के कारण कृषि पर निर्भर लोगों की संख्या 24 करोड़ से बढ़कर 72 करोड़ हो गई और खेती की जमीन बंटती गयी| अतः कृषि उत्पादकता में अप्रत्याशित बढ़ोतरी के बावजूद कृषि पर निर्भर रहने वाले लोगों की प्रति व्यक्ति आय घट गई| बढती बेरोजगारी और अशिक्षा या अल्प शिक्षा के कारण किसानों के पास अन्य कोई रोजगार करने या नौकरी करने की योग्यता भी नहीं है. अतः उन्हें कृषि पर निर्भर रहना उनकी मजबूरी बन जाती है| छोटे किसान के लिए अपनी आजीविका चला पाना कठिन होता जा रहा है|
विश्लेषण
हमारे देश में हर वर्ष सरकार को प्रति वर्ष न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करना होता है जिस मूल्य पर वह किसानों से खरीद करती है और किसानों को समर्थन मूल्य से नीचे जाकर अपनी पैदावार को नहीं बेचना पड़ता| सरकार द्वारा यह उपाय किसान को व्यापारियों के शोषण से बचाने के लिए किया जाता है परन्तु सरकार द्वारा निश्चित किया गया समर्थन मूल्य ही किसानों की दयनीय स्थिति के लिए जिम्मेदार भी है| सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य ही वर्तमान में प्रचलित मूल्यों के अनुरूप नहीं होते और किसान के साथ न्याय नहीं हो पाता|
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यहाँ गेहू का उदाहरण लेकर समझने का प्रयास करते हैं| 1970 में गेहूं का समर्थन मूल्य 76/-प्रति क्विंटल था और 2015 के समर्थन मूल्य की बात करें तो 1976 के समर्थन मूल्य का करीब उन्नीस गुना यानि 1450/ प्रति क्विंटल था जो बढती महंगाई और बढ़ते लागत मूल्य के अनुसार बिलकुल भी न्याय संगत नहीं बैठता| सरकारी क्षेत्र में इस दौरान आम वेतन वृद्धि कम से कम 120 से 150 गुना तक बढ़ाए गए हैं जबकि स्कूल शिक्षक का वेतन तो 280 से 320 गुना तक बढाया गया है| सातवें वेतन योग के अनुसार एक सरकारी चपरासी का वेतन 18000/प्रति माह निर्धारित किया गया है कृषि लागत और मूल्य आयोग के अनुसार गेहूं और चावल पैदावार से किसान को तीन हजार रूपए प्रति हेक्टर की आय होती है जो कम (पांच हेक्टर से कम) रकबे वाले किसानों के लिए,पंद्रह हजार रूपए की आय वह भी छः माह में किसान के जीवन यापन करने के लिए अप्रयाप्त है|
इस प्रकार उन्हें अपनी मजदूरी भी नसीब नहीं होती| यदि उनकी मजदूरी दस हजार प्रति माह भी मान ली जाए (यद्यपि सरकारी चपरासी की मासिक आय अट्ठारह माह निर्धारित की गयी है) तो उसे अपनी फसल पर कुल आमदनी साठ हजार होनी चाहिए. जबकि किसान के लिए तो उक्त आमदनी भी संभव नही होती यदि फसल पर मौसम की मार पड़ जाए| फसल ख़राब हो जाने के पश्चात् छोटे रकबे वाले एक या दो फसल पर निर्भर किसान के लिए कर्ज चुकाना तो असंभव ही होता है|
देश में पिछले कई सालों से किसान आंदोलन करते आ रहें है| किसानो की प्रमुख मांगे यही है कि फसलों का सही दाम दिया जाए और फसल बिकने की व्यवस्था सही की जाए| केंद्र की मोदी सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य को अपने वादे के हिसाब से लागत से डेढ़ गुना देने का दावा करती है लेकिन ज़मीनी हकीकत कुछ और ही बयां होती है|

