म्यांमार की सर्वोच्च नेता और नोबेल पुरूस्कार विजेता आंग सान सू ची से ‘एंबेसडर ऑफ़ कॉन्शियंस अवॉर्ड‘ वापस ले लिया गया है| लंदन स्थति मानवधिकार के लिए काम करने वाली संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने सोमवार को आंग सान सू ची से अपना सर्वोच्च सम्मान रोहिंग्या मुस्लिमों के खिलाफ म्यांमार की सेना द्वारा किए गए अत्याचारों पर उनकी ‘उदासीनता’ को लेकर वापस ले लिया है|
एमनेस्टी इंटरनेशनल ने कहा कि वह सू ची को दिया गया ‘ऐम्बैसडर आफ कॉन्शन्स अवार्ड’ वापस ले रहा है जो उन्हें 2009 में दिया था जब वह घर में नजरबंद थीं| सू ची से अवार्ड वापस लेने का यह पहला मौका नहीं है| एमनेस्टी इंटरनेशनल के सेक्रेटरी जनरल कुमी नाइडू ने म्यांमार की नेता को एक ख़त लिखकर इस संबंध में जानकारी दी|
समूह द्वारा जारी एमनेस्टी इंटरनेशनल प्रमुख कूमी नायडू द्वारा लिखे खत में कहा गया है, ‘आज हम अत्यंत निराश हैं कि आप अब आशा, साहस और मानवाधिकारों की रक्षा की प्रतीक नहीं हैं|’ समूह ने कहा कि उसने अपने फैसले के बारे में सू ची को रविवार को ही सूचित कर दिया था| उन्होंने इस बारे में अब तक कोई सार्वजनिक प्रतिक्रिया नहीं दी है|
एक समय में इसी संस्था ने उन्हें लोकतंत्र के लिए प्रकाशस्तंभ बताया था| सू ची को नज़रबंदी से रिहा हुए आठ साल हो गए हैं और ये फ़ैसला उनकी रिहाई के आठ साल पूरे होने के दिन ही आया है|
एक क्रूर सैन्य तानाशाही के ख़िलाफ़ और लोकतंत्र की रक्षा के लिए 15 साल तक नज़रबंद रहने वाली सू ची को एमनेस्टी इंटरनेशनल ने 1989 में ‘राजनैतिक बंदी’ घोषित किया था| इसके ठीक 20 साल बाद संस्था ने उन्हें अपने सर्वोच्च सम्मान से नवाज़ा| इससे पहले नेल्सन मंडेला को ये सम्मान दिया गया था|
अब संस्था का कहना है कि वो अपना दिया हुआ सम्मान वापस ले रहे हैं क्योंकि उन्हें नहीं लगता है कि वो इस सम्मान के लिए आवश्यक योग्यता के साथ न्याय कर पा रही हैं|
संयुक्त राष्ट्र के जांचकर्ताओं ने अपने निष्कर्ष में कहा कि सैनिकों द्वारा रोहिंग्या अल्पसंख्यकों पर होने वाले अत्याचारों के ख़िलाफ़ वो अपने अधिकारों का इस्तेमाल करने में नाकाम रही हैं|
सू ची साल 2016 में सत्ता में आईं थी| हालांकि उन पर अंतरराष्ट्रीय दबाव हमेशा रहा| जिसमें से एक दबाव एमनेस्टी इंटरनेशनल की तरफ़ से भी था कि रोहिंग्या अल्पसंख्यकों पर सेना के अत्याचार का उन्हें विरोध करना चाहिए लेकिन सू ची ने इस मामले में चुप्पी ही साधे रखी|
म्यांमार के उत्तरी रखायन प्रांत में रोहिंग्या सिर्फ ‘सेना बनाम रोहिंग्या’ की लड़ाई नहीं थी बल्कि वें बौद्ध समाज के साथ सांप्रदायिक हिंसा के भी भेंट चढ़ चुके थे| साल 2012 में रोहिंग्या औरतों के साथ बलात्कार और हत्या के बाद दंगा भड़का तब वहां से सवा लाख रोहिंग्या मुसलमानों को देश छोड़कर भागना पड़ा| वहां की सरकार ने रोहिंग्यों की मदद पर रोक लगा दी थी| बौद्ध समुदाय द्वारा उन्हें घेर कर मारा गया जिसके खिलाफ सू ची ने हिंसा पर चुप्पी साध रखी थी| ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में खबर छपी थी कि केवल 1 दिन में मुसलमानों के साथ–साथ 86 हिन्दुओं की हत्या की गई थी वहीँ, म्यांमार की नेता अंग सां सू ची ने बिना किसी सबुत के रोहिंग्या मुसलमानों को आतंकवादी करार दिया था|
(ये लेख लंदन के डी गार्डियन से साभार है)

