भारत में हेल्थ सेक्टर का मुद्दा हमेशा से केंद्र बिंदु में रहा है| पश्चिम बंगाल में डॉक्टरों के साथ हुई मारपीट के बाद आज फिर देश भर के डॉक्टरों हड़ताल में बैठ गए है| यह हड़ताल सोमवार सुबह 6 बजे से मंगलवार सुबह 6 बजे तक हड़ताल करने का ऐलान किया है| डोक्टरों द्वारा किए गए इस हड़ताल की वजह से करीब दस लाख डॉक्टर ओपीडी में नहीं दिखेंगे| वहीँ, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) जिसने पहले हड़ताल से अलग रहने का फैसला लिया था वह अब इसमें शामिल हो गया|
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) ने देशभर में 24 घंटे के लिए गैर-आवश्यक चिकित्सा सेवाओं को वापस लेने का आह्वान किया है जिसमें ओपीडी सेवा शामिल है| यह फैसला कोलकाता के एनआरएस मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल के डॉक्टरों पर हुए हमले के प्रति समर्थन दिखाने के लिए लिया गया है| आपातकालीन और आईसीयू सेवाएं प्रभावित नहीं होंगी|
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उल्लेखनीय है कि आईएमए ने अस्पतालों में होने वाली हिंसा को रोकने के लिए एक देशव्यापी कानून बनाए जाने की मांग की है जिसमें तीन प्रमुख मांगे है| पहला, न्यूनतम सात साल की सजा का प्रावधान हो| दूसरा, अस्पतालों को सुरक्षित क्षेत्र घोषित किया जाना चाहिए और तीसरा, पर्याप्त सुरक्षा राज्य की जिम्मेदारी हो| दिल्ली मेडिकल एसोसिएशन, सफदरजंग अस्पताल प्रदर्शन में शामिल हो गए हैं|
हेल्थ सेक्टर की लचर ज़मीनी हकीकत-
देशभर में डॉक्टरों की चल रही हड़ताल का एक कारण स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र की ख़राब होती स्थति भी है| शोध एजेंसी ‘लैंसेट’ ने अपने ‘ग्लोबल बर्डेन ऑफ डिजीज’ नामक अध्ययन में पाया गया कि भारत स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में बांग्लादेश, चीन, भूटान और श्रीलंका समेत अपने कई पड़ोसी देशों से पीछे हैं|
आज हेल्थ सेक्टर की जमीनी हकीकत बताती है कि हमारे देश में स्वास्थ्य सेवा की ऐसी लचर स्थिति है कि सरकारी अस्पतालों में चिकित्सकों की कमी व उत्तम सुविधाओं का अभाव होने के कारण मरीजों को अंतिम विकल्प के तौर पर निजी अस्पतालों का सहारा लेना पड़ता हैं| इसके साथ ही गरीबों के लिए इलाज करवाना अपनी पहुंच से बाहर होता जा रहा है|
ये प्रमुख मुद्दे-
- कम जीडीपी दर- आज स्वास्थ्य सेवाओं पर सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी को सबसे कम खर्च करने वाले देशों में शुमार हैं| आंकड़ों के मुताबिक, भारत स्वास्थ्य सेवाओं में जीडीपी का महज़ 1.3 प्रतिशत खर्च करता है| सरकार की इसी उदासीनता का फायदा निजी चिकित्सा संस्थान उठा रहे हैं जहाँ महंगे इलाज करवाने के लिए लोग मजबूर हो रहे है| सरकार द्वारा स्वास्थ्य सेवाओं में कम बजट एक प्रमुख कारन है जिसकी वजह से आज भारत नेपाल और पाकिस्तान जैसे देशों से भी पीछे हैं|
- डॉक्टरों की कमी- आज देश में 14 लाख डॉक्टरों की कमी हैं| विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के आधार पर जहां प्रति एक हजार आबादी पर एक डॉक्टर होना चाहिए| वहां भारत में सात हजार की आबादी पर एक डॉक्टर है| केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 11,082 लोगों पर महज एक एलौपैथिक डॉक्टर है|
देश में डॉक्टर की कमी एक बड़ी समस्या बनती जा रही है| विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, एक प्रति एक हजार (1:1000) होना चाहिए यानी देश में यह अनुपात तय मानकों के मुकाबले 11 गुना कम है| इस मामलें में बिहार राज्य की हालत सबसे ज्यादा ख़राब है| वहां प्रति 28,391 लोगों पर महज एक एलोपैथिक डॉक्टर है| वहीँ, उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में भी तस्वीर बेहतर नहीं है| इसके अलावा लगातार बढ़ती आबादी भी डॉक्टरों की कमी की बड़ी वजह बनती जा रही है|
- महंगा इलाज- देश में महंगा इलाज एक बड़ी समस्या बनती जा रही है जिसमें सबसे अधिक गरीब पीस रहे है| एक अध्ययन के अनुसार स्वास्थ्य सेवाओं के महंगे खर्च के कारण भारत में प्रतिवर्ष चार करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं| रिसर्च एजेंसी ‘अर्न्स्ट एंड यंग’ द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में 80 फीसदी शहरी और करीब 90 फीसदी ग्रामीण नागरिक अपने सालाना घरेलू खर्च का आधे से अधिक हिस्सा स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च कर देते हैं|
आज ज्यादातर निजी अस्पतालों का लक्ष्य मुनाफा कमाना बनता जा रहा है| दवा निर्माता कंपनी के साथ सांठ-गांठ करके महंगी से महंगी व कम लाभकारी दवा देकर मरीजों से पैसे वसूले जा रहे है|
- बिना डिग्री वाले डॉक्टरों की बढती तादाद- विश्व स्वास्थ्य संगठन 2016 के रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में एलोपैथिक डाक्टर के तौर पर प्रैक्टिस करने वाले एक तिहाई लोगों के पास मेडिकल की डिग्री नहीं है| देश में फिलहाल मेडिकल कॉलेजों में एमबीबीएस की 67 हजार सीटें हैं| इनमें से भी 13 हजार सीटें पिछले चार सालों में बढ़ी हैं| बावजूद इसके डॉक्टरों की तादाद पर्याप्त नहीं है|
- राजनितिक मुद्दों में स्वास्थ्य सेवा की अनदेखी- पश्चिमी देशों में स्वास्थ्य सेवा राजनितिक गलियारे का प्रमुख मुद्दा होता है जबकि भारत में स्वास्थ्य सेवा की अनदेखी की जाति है| देश की सरकार स्वास्थ्य क्षेत्र में पर्याप्त खर्च कर पाने में नाकाम है और कम बजट निर्धारित किया जाता है जिसकी वजह से स्वास्थ्य सेवा की संरंचानात्मक ढांचा मज़बूत नहीं हो पाता| स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में भारत भारत सबसे कम खर्च करने वाले देशो में शुमार है जो शर्मनाक भी है और निराशजनक भी|
भारत में सरकारों ने स्वास्थ्य क्षेत्र में अनेक कदम उठाए हैं जिनमें राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 1983, स्थानीय संस्थाओं को शक्ति प्रदान करने वाले संविधान के 73वें व 74वें संशोधन, राष्ट्रीय पोषण नीति 1993, राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, भारतीय चिकित्सा, होम्योपैथी, दवा पर राष्ट्रीय नीति 2002, गरीब स्वास्थ्य बीमा योजना 2003, सरकार के सामान्य न्यूनतम कार्यक्रम 2004 में स्वास्थ्य को शामिल करना है। इनके अतिरिक्त राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन और सार्वभौमिक स्वास्थ्य योजना भी बारहवीं पंच वर्षीय योजना में शामिल हैं|
साल 2017 में भी ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति’ लागू की गई जिसका प्रमुख उद्देश्य सरकार की भूमिका को स्वास्थ्य व्यवस्था के हर आयाम को आकार देना है| नई राष्ट्रीय नीति का प्रमुख लक्ष्य स्वास्थ्य क्षेत्र में निवेश, सेवाओ को व्यवस्थित करना, बीमारियों की रोकथाम और अंतर्विभागीय कार्यवाही से अच्छे स्वास्थ्य को बढ़ाना है|
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जब देश का नागरिक स्वस्थ होगा तभी देश का विकास सूचकांक ऊपर उठेगा| आज भारत को सीस्थय सेवा के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव लाने की ज़रूरत है| साथ ही स्वास्थ्य प्रणाली में संरचनात्मक समस्याओं की पहचान कर उसमें सुधार करने की ज़रूरत है|
इसमें शक नही कि जब देश का नागरिक स्वस्थ होगा तभी देश का विकास सूचकांक ऊपर उठेगा| आज भारत को सीस्थय सेवा के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव लाने की ज़रूरत है| साथ ही स्वास्थ्य प्रणाली में संरचनात्मक समस्याओं की पहचान कर उसमें सुधार करने की ज़रूरत है और स्वास्थ्य क्षेत्र से जुडी नीतियों को मजबूती से लागू कराने की आवश्यकता है ताकि नीतियों का लाभ देश के हर नागरिकों को मिल सकें|