अस्सी के दशक में रिलीज हुई अमेरिकी फिल्म ‘घोस्टबस्टर्स’ में एक सेक्रेटरी जब वैज्ञानिक से पूछती है कि ‘क्या वे पढ़ना पसंद करते हैं? वैज्ञानिक कहता है ‘प्रिंट इज डेड’। इस पात्र का यह कहना उस समय हास्य का विषय था परंतु वर्तमान परिदृश्य में प्रिंट मीडिया के भविष्य पर तमाम तरह के सवाल मुंह बाये खड़े हैं।
2008 में जेफ्फ़ गोमेज़ ने ‘प्रिंट इज डेड’ पुस्तक लिखकर प्रिंट मीडिया के विलुप्तप्राय होने की अवधारणा को जन्म दिया तो रोस डावसन ने तो समाचारपत्रों के विलुप्त होने का समयाकाल चार्ट ही बना डाला। इस चार्ट में जो बात मुख्यरूप से कही गई थी, उसके अनुसार 2017 में संयुक्त राज अमेरिका से लेकर 2040 तक विश्व से समाचारपत्रों के प्रिंट संस्करण विलुप्त हो जाएंगे।
तीन दशक पहले की भविष्यवाणी और आज के प्रिंट मीडिया की हकीक़त बहुत जुदा तो नहीं हैं, मगर एक-दूसरे के पूरक भी नहीं हैं। कच्चे माल की कीमतों में वृद्धि और नोटबंदी से प्रिंट मीडिया पहले ही त्रस्त था, लेकिन पिछले दिनों अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपए का कमजोर होना और चीन में रद्दी कागज के आयात पर प्रतिबंध लगने से अंतर्राष्ट्रीय बाजार में अखबारी कागज के दाम आसमान पर पहुंच गए हैं। हालात बद से बदतर हो रहे हैं, ऐसे में बुद्धजीवियों का प्रिंट मीडिया उद्योग के लिए चिंतित होना स्वाभाविक है।
विश्व के अन्य देशों की राह पर चलते हुए भारत में भी प्रिंट मीडिया और इसकी पत्रकारिता में साल दर साल तेजी से बदलाव हो रहा है। हाल के दिनों में ही कोलकाता में अंग्रेजी के दूसरे सबसे बड़े समाचार पत्र को बंद कर दिया गया, और तो और देश के सबसे बड़े मीडिया व्यवसायी ने अपने धंधे को समेटकर आधा कर दिया। इसके अलावा भारत की तीन दिग्गज मीडिया कंपनियों में न्यूज़ मीडिया से होने वाली कमाई में भी भारी गिरावट देखने को मिल रही है। एक कारण यह है कि पहली बार मौजूदा सरकार ने न्यूज़प्रिंट पर 5% का जीएसटी कर लगाया है। साथ-ही-साथ सरकार के प्रचार विभाग ने नियमों की फेहरिस्त में सबसे छोटे व मझौले समाचार पत्रों को उलझाकर अपनी सूची से बाहर कर दिया है जिन्हें सरकारी विज्ञापन मिल जाया करते थे और वे अपना गुजारा कर लेते थे।
इस कठिन माहौल में कमोवेश सभी मीडिया लीडर स्वयं को फिर से स्थापित करने में लगे हैं। हालांकि मुख्य मुद्दा उनकी शक्तियों को परखने का नहीं है बल्कि यह एक डरावनी हकीक़त है जिससे उबरने की कोशिश में इस उद्योग के मार्गदर्शक और दिग्गज लगे हुए हैं। अब तो गला-काट प्रतिस्पर्धा से बाहर निकलना और लंबे समय से चले आ रहे पुराने मूल्यों व सिद्धांतों का पुनर्मूल्यांकन करना जरूरी हो गया है।
गौरतलब है कि राजस्व में कमी आने की तमाम वजह हैं जिनमें वस्तु एवं सेवा कर, नोटबंदी, रियल एस्टेट रेगुलेशन एक्ट, सामान्य विज्ञापनदाताओं के कारोबार में गिरावट, एसएमई सेक्टर में संकट, दिग्गज कंपनियों के स्तर पर संगत योगदान के बिना स्वाभाविक आधार पर समाचार और वेब मनोरंजन की ऑनलाइन खपत आदि तो महत्वपूर्ण हैं ही, इसके अलावा न्यूज़प्रिंट पहले से काफी महंगा हो गया है। राजस्व घटने के बहुत से अन्य कारण भी हैं। इन कारणों में एक तो मुख्य है कि काफी समय से अधिकांश समाचार संस्थानों ने संपादकीय कर्मचारियों को बहाल करने पर रोक लगा के रखी गई है, जबकि बहुत सारे वरिष्ठ कर्मचारियों को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना को स्वीकार करने के लिए विवश किया जा रहा है।
आज के दौर में पत्रकारिता की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि पिछले एक दशक से अधिकांश समाचार पत्रों के मालिक व्यवसायिक घराने हो गए हैं। इसका नकारात्मक परिणाम हररोज हमारे सामने आ रहा है। कुछ कलमकारों ने तो अपने ज़मीर को गिरवीं रख दिया है। आज जो समाचार हमें मिलते हैं, वे पूंजीपतियों के लिए होते हैं, न कि आम आदमी या फिर समाज के निचले तबक़े के लिए। सरकार के मनचाहें फैसलों और दबाव के आगे मीडिया अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी निभाने में नाकाम साबित हो रहा है।
मुश्किल में प्रिंट उद्योग?
आज का प्रिंट मीडिया पूर्ण रूप से विज्ञापन की आय पर निर्भर हो चला है। इसके साथ ही अखबार का मूल्य लागत मूल्य से बहुत कम होने की वजह से आय कम होती है नुकसान ज्यादा। इस उद्योग को सबसे ज्यादा आर्थिक नुकसान तब होता है जब प्रसार व पाठकों की संख्या बढ़ाने के लिए इसके कवर प्राइज को घटाकर प्रसार बढ़ाने संबंधी तरह-तरह की स्कीम चलाई जाती हैं। निगरानी व नेतृत्व में अपरिपक्वता के कारण इस उद्योग को प्रतिवर्ष अरबों रूपए का नुकसान हो रहा है। आज इससे जुड़ा बड़े से बड़ा विशेषज्ञ अपनी प्रतिभा को हालात के सुपुर्द करता जा रहा है। इसका अपरोक्ष रूप से सबसे ज्यादा नुकसान आंतरिक प्रेसर ग्रुप कर रहा है। आईआरएस रिपोर्ट की अविश्वसनीयता ने इस उद्योग में कठोर परिश्रम के बजाए हर कदम पर गलत कार्य नीतियों को बढ़ावा दिया है। साथ ही यह उद्योग प्रतिद्वंदिता की स्थिति में सकारात्मकता व निष्पक्षता को बढ़ावा न देकर कभी-कभी अविश्वसनीय गलत नीतियों को, विशेषकर कामचलाऊ नीति पर विशेषज्ञता हासिल करने की होड़ में आगे बढ़ता जा रहा है। आये दिन आयोजित बेस्ट अवार्ड व अभियान असलियत में प्रायोजित व पेड होते हैं जो इस उद्योग की विश्वसनीयता पर ही सवाल खड़े करते हैं।
आखिर कुछ वजह तो होगी?
प्रिंट मीडिया में समस्या की जड़ें कहां तक फ़ैली है समझना थोड़ा मुश्किल है। इसमें करीब 30-40 फ़ीसद खर्चा तो अखबारी कागज पर ही हो जाता था जो अब 50 फ़ीसद से आगे बढ़ता जा रहा है। पिछले साल तक न्यूजप्रिंट की कीमतें जहां 36000 रुपए प्रति टन थीं, वह अब 55000 रुपए प्रति टन हो गई हैं। गौरतलब है कि भारत में सालाना रूप से न्यूजप्रिंट की मांग 2.6 मिलियन टन है। अब ऐसे में यदि न्यूजप्रिंट की कीमतें 50 फ़ीसद से ज्यादा बनी रहीं तो प्रिंट मीडिया उद्योग को वार्षिक रूप से 4600 करोड़ रुपए से ज्यादा का नुकसान होने की आशंका व्यक्त की जा रही है। इस वृद्धि से देश में प्रिंट उद्योग पर यह अतिरिक्त वार्षिक बोझ पड़ेगा। कुछ विशेषज्ञों का तो मानना है कि अगर समय रहते उपाय न किये गए तो यह उद्योग डूबने की कगार पर बहुत जल्द पहुंच जायेगा।
इस साल की पहली तिमाही की बात करें तो सूचीबद्ध कंपनियों के आंकड़ों के बारे में तो सभी को पता है लेकिन कुछ गैरसूचीबद्ध कंपनियों की ग्रोथ या तो नहीं बढ़ी है अथवा यह शीर्ष स्तर पर सिर्फ एकल अंक में बढ़ी है। डॉलर महंगा होने के कारण ज्यादा विदेश न्यूजप्रिंट इस्तेमाल करने वालों पर विपरीत प्रभाव पड़ा है या आने वाले समय में पड़ेगा। अंग्रेजी अखबार सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं हालांकि क्षेत्रीय भाषाओँ के समाचार पत्रों ने स्वयं को पहले से मजबूत किया है।
न्यूजप्रिंट की कीमतों में हुई वृद्धि के अलावा देश में न्यूजप्रिंट के वास्तविक खरीदारों को लेकर भी स्थिति स्पष्ट न होने से यह मसला और गहराता जा रहा है। इस मामले में ‘इंडियन न्यूजप्रिंट मैन्यूफैक्चरर्स एसोसिएशन’ का कहना है कि, ‘पहले सिर्फ पंजीकृत मिल्स और पब्लिशर्स को ही रियायती टैक्स का लाभ मिला करता था, लेकिन जब से जीएसटी लागू हुआ है, अन्य पार्टियां भी न्यूजप्रिंट खरीद रही हैं जबकि पहले ऐसा नहीं होता था और उन्हें इसे दूसरे ग्रेड पेपर की तरह बेचा जाता था।’ इस अस्प्ष्टता के कारण जीएसटी की दरों में काफी छेड़छाड़ हो रही है। अन्य पार्टियों द्वारा न्यूजप्रिंट की खरीद किए जाने से पब्लिशर्स के सामने आपूर्ति का संकट खड़ा हो गया है।
प्रिंट मीडिया की टेढ़ी-मेढ़ी चाल
विश्वभर में न्यूजप्रिंट की कीमतों ने इस साल लगभग सभी को अपनी चपेट में लिया है। न्यूजप्रिंट का ऑर्डर छह से नौ महीने पहले एडवांस में दिया जाता है। इन परिस्थितियों में कई प्रिंट मीडिया घरानों की गणित गड़बड़ा गई है। कुछ तो सिर्फ न्यूजप्रिंट की कीमतों में बढ़ोतरी के कारण ही घाटे में जा सकते हैं। इनपुट कॉस्ट में 50 प्रतिशत से ज्यादा की बढ़ोतरी होने और क्षतिपूर्ति के लिए कोई निश्चित उपाय न होने की वजह से इस इंडस्ट्री को एक साल में करीब 4600 करोड़ रुपए का घाटा हो सकता है।
वहीं जीएसटी की वजह से देश में प्रकाशित होने वाले विभिन्न भाषा के राष्ट्रीय और क्षेत्रीय भाषा के तकरीबन साढ़े नौ हजार अखबार बंद होने की कगार पर हैं। जबकि हमारे लोकतंत्र को मजबूत आधार देने वाले चौथे स्तंभ के अंतर्गत प्रकाशित लगभग साढ़े नौ हजार इन अखबारों की देशभर में रोजाना 27 करोड़ प्रतियां प्रसारित होती हैं। सरकारी आंकड़ों पर नजर डाले तो इन अखबारों से देश में लगभग ढ़ाई लाख से ज्यादा परिवारों की रोजी रोटी चलती है। उधर सरकार द्वारा अखबार के न्यूज़ प्रिंट पर 5 प्रतिशत जीएसटी लगाने से उसे लगभग सलाना करीब 755 करोड़ रूपए की आमदानी होती है। लेकिन इन अखबारों में काम करने वाले मजदूरों के परिवारों की जीविका बंद होती जा रही है।
25 से 30 हजार के सर्क्यूलेशन वाले समाचारपत्रों का प्रिंट मीडिया के उद्योग में बने रहना अब मुश्किल हो गया है। जीएसटी आने से पहले अखबारी पेपर यानी न्यूजप्रिंट पर कोई कर नहीं लगता था। इसके अलावा केंद्र सरकार ने अखबारों के लिए सरकारी विज्ञापनों के नियमों को कड़ा बना दिया। प्रश्न है कि सरकार इनके बारे में क्यों मूकदर्शक बनी हुई है। विज्ञापन पर होने वाला खर्च उतना नहीं बढ़ रहा है, जितना कि उद्योग चाहता है। इसमें सिर्फ पांच से सात प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। इसके अलावा कीमतों में बढ़ोतरी, खासकर न्यूजप्रिंट की बात करें तो इससे इंडस्ट्री के सभी लोगों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।
पिछले दिनों न्यूजप्रिंट की कीमतों में हुई बेतहाशा वृद्धि का असर ‘एचटी मीडिया’ के वित्तीय वर्ष 2018-19 की प्रथम तिमाही के नतीजों पर देखा जा सकता है, जिसमें कुल लाभ में करीब 86 प्रतिशत की कमी देखने को मिली है। न्यूजप्रिंट की ज्यादा कीमतों के कारण इसकी ऑपरेटिंग परफॉर्मेंस भी काफी प्रभावित हुई है। इसके अलावा सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाला हिंदी अखबार ‘दैनिक जागरण’ (Dainik Jagran) सालाना करीब 1,80,000 टन न्यूजप्रिंट खरीदता है। ऐसे में न्यूजप्रिंट की कीमतों में बढ़ोतरी के कारण अखबार को करीब 290 करोड़ रुपए का अतिरिक्त भुगतान करना पड़ा है। ऐसे हालातों में बड़े अखबार जैसे ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ और ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ जो अधिकांश न्यूजप्रिंट आयात करते हैं, उन्हें ज्यादा नुकसान होगा।
वहीं, इस स्थिति के बारे में ‘दिल्ली प्रेस’ जैसे कई प्रकाशक सकारात्मक सोच भी रखते हैं। उनका मानना है कि स्थिति नाजुक है लेकिन यदि प्रकाशक अखबार की कीमतें सही रखें और कंटेंट को मुफ्त में देना बंद कर दें तो इससे इतना भी बड़ा संकट नहीं होगा। पर उस हक़ीकत से कैसे मुंह मोड़ा जा सकता है कि न्यूजप्रिंट की कीमतें बढ़ने के बावजूद अखबार की कीमतें बढ़ नहीं रही हैं। इनमें बढ़ोतरी होनी चाहिए और पाठकों को मुफ्त में कंटेंट देने से बचना चाहिए।
भारतीय पत्र-पत्रिकाओं की साज-सज्जा देखने से लगता है जैसे हम बाजार के बीच खड़े हों और फेरीवाले चिल्ला-चिल्ला कर अपने माल की ओर हमारा ध्यान खींच रहे हों। बिक्री का सर्वमान्य फार्मूला है ‘रेप एंड रुइन मेक ए न्यूजपेपर सेल’ यानी बलात्कार, दंगे और बरबादी की खबरों से अखबार बिकते हैं। भारती पत्रकार देश के आम नागरिकों को वयस्क मान कर भी नहीं लिखते, बल्कि यह मान कर चलते हैं कि देश के लोग आर्थिक रूप से निर्धन होने के साथ बौद्धिक रूप् से भी निर्धन हैं, अत: सारी सामग्री का चयन भी उनकी बौद्धिक निर्धनता के हिसाब से ही होता है। पत्र-पत्रिकाओं में चित्रों, खासकर रंगीन चित्रों या रंगीन पृष्ठों से पाठकों की आदत ऐसी बनती जा रही है कि वे ऐसी पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ ही नहीं सकते जो पहली ही नजर में तस्वीर की तरह सब कुछ व्यक्त न कर देती हों या मनोरंजक न हों। आज के समय में भारतीय पत्रकारिता में बिक्री बढ़ाने के लिए पत्र-पत्रिकाओं को नहीं, बल्कि प्रकाशित सामग्री को रास्ता बनाने की होड़ लगी हुई है।
प्रिंट मीडिया की दिशा और दशा: निगमीकरण, केंद्रीकरण और विकेंद्रीकरण
समकालीन मीडिया के निगमीकरण, केंद्रीकरण और विकेंद्रीकरण की प्रक्रियाएं साथ-साथ चल रही हैं। मीडिया संघटन एक तो खुद व्यापारिक निगम बनते जा रहे हैं और दूसरी ओर वे पूरी तरह से विज्ञापन उद्योग पर निर्भर हैं। एक ओर नई प्रौद्योगिकी और इंटरनेट ने उन्हें अपनी बात अंतर्राष्ट्रीय समुदाय तक पहुंचाने का एक सुलभ मंच प्रदान किया है, तो दूसरी ओर मुख्यधारा मीडिया में केंद्रीकरण की प्रक्रिया भी तेज हुई है। पूरे विश्व और लगभग हर देश के भीतर मीडिया का केंद्रीकरण हो रहा है। मीडिया का आकार विशालकाय होता जा रहा है और इस पर स्वामित्व रखने वाले संगठन कुछ कॉर्पोरेट लीडरों की कठपुतली बनते जा रहे हैं । भारत में पिछले एक दशक से इस प्रक्रिया में सरकार का हस्तक्षेप बढ़ा है, विशेषकर 2014 के बाद से। अनेक बड़ी मीडिया कंपनियों ने छोटी मीडिया कंपनियों का अधिग्रहण कर लिया है। कई मौकों पर तो बड़ी– बड़ी कंपनियों के बीच विलय से भी मीडिया के केंद्रीकरण को ताकत मिली है लेकिन इसके दूरगामी नकारात्मक परिणाम भी सामने आने लगे हैं।
आज सूचनातंत्र पर चंद विशालकाय बहुराष्ट्रीय मीडिया निगमों का प्रभुत्त्व है जिनमें से अधिकांश अमेरिका में स्थित हैं। बहुराष्ट्रीय मीडिया निगम स्वयं अपने आप में व्यापारिक संगठन तो हैं ही लेकिन इसके साथ ही ये सूचना-समाचार और मीडिया उत्पाद के लिए एक वैश्विक बाजार तैयार करने और एक खास तरह के व्यापारिक मूल्यों के प्रचार-प्रसार के लिए ही काम करते हैं। इन बहुराष्ट्रीय निगमों के इस व्यापारिक अभियान में स्वायत पत्रकारिता और सांस्कृतिक मूल्यों की कोई अहमियत नहीं होती। यह रुझान भारत की प्रिंट मीडिया में भी देखने को मिल रहा है, हालांकि तमाम न्यूज़ चैनल पहले ही सरकार के सामने नतमस्तक हो गए हैं। मोटे तौर पर यह कह सकते हैं कि वैश्विक मीडिया वैश्विक व्यापार के अधीन ही काम करता है और दोनों के उद्देश्य एक-दूसरे के पूरक हो चले हैं।
इसके अपवाद स्वरुप, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की 71वें राउंड की रिपोर्ट के अनुसार जनवरी 2014 तक 71% ग्रामीण भारत और 86% प्रतिशत शहरी भारत साक्षर था। साक्षरता के विकास की संभावनाओं को समाचारपत्रों के विकास के साथ जोड़कर भी देखा जा सकता है। 2011 की जनगणना के अनुसार 80% से कम साक्षरता वाले राज्यों की संख्या 15 है जिनमें से अधिकतर हिन्दी ‘हार्टलैंड’ के राज्यों की संख्या है। ग्रामीण भारत के मध्यवर्गीय निवासियों की क्रयशक्ति में वृद्धि होने के कारण भी समाचारपत्रों की मांग बढ़ेगी। संचारविदों का मानना है कि ग्रामीण क्षेत्रों में टेलीविजन के विकास ने समाचारों के प्रति जिज्ञासा को और बढाया है जिसकी पूर्ति समाचारपत्रों से ही संभव होती है।
प्रिंट मीडिया में नवोन्मेष: अभी नहीं तो फिर कभी नहीं
प्रिंट मीडिया में इनोवेट कैसे करते हैं? हम राजस्व को कैसे बढ़ा सकते हैं। इसी मुद्दे को ध्यान में रखकर और दुनियाभर के विभिन्न अनुसंधानों के आधार पर प्रिंट मीडिया में नवप्रवर्तन करने के हमने दस तरीके और राजस्व बढ़ाने के पांच तरीके सुझाये हैं। इनका अनुसरण कर प्रिंट मीडिया में वैश्विक स्तर पर छाई निराशा से निजात पाने में काफी हद तक मदद मिल सकती है, विशेषकर भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए प्रिंट मीडिया का अस्तित्व में बने रहना बहुर जरूरी हो जाता है।
कई सारे ऐसे न्यूज़ मीडिया हैं जो अपने पाठकों और यूजर्स के साथ संबंध जोड़ने की लगातार कोशिश करते रहते हैं और वे अपने मकसद में सफल भी हो रहे हैं। वे आने वाले समय में अग्रणी मीडिया हाउस बनेंगे जो पिछली शताब्दी के पत्रकारिता सिद्धांतों जैसे निकटता का सिद्धांत; तटस्थता का सिद्धांत; निष्पक्षता का सिद्धांत आदि को चुनौती देते हैं। ऐसा माना जाता है पत्रकारों के पास आम जनता के लिए महत्वपूर्ण जानकारी को खोजने और चयन करने की विशेष क्षमता होती है। पर मूल विचार इससे अलग है। पत्रकारिता में मूलरूप से समाचार और तथ्यों को एक पाठक से दूसरे पाठक तक ले जाना जरूरी है।
तटस्थता से हटें, एकात्मता की ओर बढ़ें:
कंटेंट के सन्दर्भ देखें तो, पत्रकारिता में अधिक आकर्षक, सहयोगपूर्ण और सामुदायिक उन्मुख नेतृत्व की सबसे अधिक आवश्यकता होती है। इसलिए तटस्थता से हटें एकात्मता की ओर बढ़ें, समाज और देश को बताएं, दर्शायें कि आप कौन हैं, और किस परिप्रेक्ष्य से यानी- भौगोलिक दृष्टि से, सामाजिक-जनसांख्यिकीय, या राजनीतिक रूप से – आप दुनिया को कैसे देखते हैं।
सर्वग्राही को त्यागें, विशिष्टता की ओर बढ़ें:
एक ही समय में उच्च सार्वजनिक मूल्य की पत्रकारिता और लक्षित दर्शकों की आवश्यकता दोनों को पूरा करना संभव है। इसके लिए क्षेत्रीय पूरक, उपयोगी कंटेंट, समाचार आदि की आवश्यकता होगी जिसका आप मिथकों और झूठी खबरों के सच को सामने लाने में उपयोग कर सकते हैं।
झुंड से हटें, एक समर्पित संस्था बनें:
न्यूज़ मीडिया के गिर्द लोगों को एकत्रित करने को अपना मकसद बनायें। स्पष्ट रूप से परिभाषित समुदायों जैसे – क्लब, सामुदायिक संगठन आदि, जहां गति प्राप्त करने के लिए एक रणनीति पर समान रूप से काम किया जाता है। इसके लिए, राउंडटेबल, ऑनलाइन और ऑफ़लाइन डिबेट जैसे प्रयोग अपनी सुविधानुसार किये जा सकते हैं।
डेस्क रिपोर्टिंग छोड़ें, फील्ड की खाक छानें:
सार्वजनिक सभाओं, त्यौहार, महोत्सव और मंचीय नाटक आदि के रूप में वास्तविक पत्रकारिता से जुड़ें। हर महीने कम से कम एक इवेंट पर जरूर फोकस करें। कुछ मीडिया संगठन पहले से ही उच्च-डेसीबल टेलीविजन कार्यक्रमों के कंटेंट, नेटवर्क और राजस्व का फायदा उठा रहे हैं।
बोलना छोड़ें, सुनने की आदत डालें:
आम लोगों की बातों को सुनें और उनके साथ व्यक्तिगतरूप से वार्ता करें, समुदायों में प्रत्यक्ष उपस्थिति दर्ज करें, या छोटे-बड़े आंकडों के व्यवस्थित उपयोग के जरिये संपादकीय मामलों को और अधिक पारदर्शी बनायें। इसके लिए पाठकों की राय को समुदाय व नागरिक पत्रकारिता के रूप में अधिक से अधिक देखना चाहिए।
अंतरंगता को छोड़ें, सहयोग के लिए हाथ बढाएं:
पत्रकारिता की प्रक्रिया में विचारधारा से लेकर कंटेंट की डिलीवरी तक तो लोगों को जोड़ें ही, साथ ही प्रकाशित लेखों के बाद की बहस तक में आम लोगों को प्रत्यक्षरूप में शामिल करें। इसके लिए राउंडटेबल्स, ओपिनियन, बहस, स्टैंड-ऑफ, अतिथि संपादकीय इत्यादि को बार-बार और आउटपुट में बढ़ाया जाना चाहिए।
अपने मीडिया प्लेटफॉर्म को दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर ले जाएं:
सोशल नेटवर्क टेक्नोलॉजी में संबंध को बढ़ाने और प्रगाढ़ बनाने की ग़जब की क्षमता होती है, साथ ही पत्रकारिता भी मजबूत बनी रहती है। इसलिए, अपने मीडिया प्लेटफॉर्म के सभी पहलुओं को सोशल मीडिया पर सक्रिय करें। वहां न केवल कंटेंट का व्यापक प्रसार होगा बल्कि मीडिया उपभोक्ताओं के साथ जुड़ने और बहस करने में भी सफल होंगे।
समस्या नहीं समाधान खोजें:
यदि आप अपने काम में समाधान-उन्मुख लेवल जोड़ते हैं तो आपको अधिक से अधिक प्रभाव का लाभ मिलता है। रचनात्मक पत्रकारिता पाठकों, उपयोगकर्ताओं, दर्शकों के बीच अधिक जुड़ाव बनाती है। इसलिए, सभी विशेषताओं को आदर्श रूप से समाधान-उन्मुख होना चाहिए।
मात्र पर्यवेक्षक न बनें, कार्यकर्ता भी बनें:
अभियान का कार्यकर्ता बनकर या जर्नालिस्टिक एड्वोकेसी के माध्यम से अपने पाठकों, उपयोगकर्ताओं और दर्शकों के लिए नई प्रासंगिकता गढ़ें। इसलिए नेट न्यूट्रैलिटी, आरटीआई का कार्यान्वयन, 10% जीडीपी कैम्पेन, कम कर-उच्च अनुपालन अभियान इत्यादि के पक्ष का समर्थन कर सकते हैं।
कंटेंट को कन्वर्जेंस मल्टी-मीडिया प्लेटफॉर्म पर ले जायें:
ऑफलाइन (प्रकाशन), ऑनलाइन (पोर्टल, सोशल मीडिया), ऑन एयर (टेलीविज़न, रेडियो), ऑनग्राउंड (इवेंट) और मोबाइल (एप) प्लेटफार्मों पर अपनी उपस्थित बनाये रखने का पूर्ण प्रयास करें । फिर, कोई भी मीडिया समूह अपने कंटेंट को कई मीडिया प्लेटफॉर्म पर निर्बाध रूप से ले जा सकता है, मल्टी-स्किल्ड पेशेवरों को रखकर मानव संसाधनों पर लागत को कम किया जा सकता है, और कई सारे मीडिया में अपने विज्ञापनदाताओं को एकीकृत विपणन और ब्रांडिंग सलूशन प्रदान कर उच्च राजस्व भी लाया सकता है।
राजस्व बढ़ेगा तो बनेगी हर बात
राजस्व के मोर्चे पर, पहला वाला अंतिम वाले के उपर है: कन्वर्जेन्स एचआर लागत, अचल संपत्ति लागत और समाचार एकत्रित करने की लागत को कम करता है, साथ ही संसाधन दक्षता में वृद्धि करता है और सभी प्लेटफार्मों में अधिक राजस्व लाता है।
दूसरा, इवेंट निश्चित रूप से संबंध और कंटेंट के अलावा सकारात्मक टॉप एवं बॉटम लाइन का कारण बनते हैं, हालांकि संगठनों को उन शक्तियों के प्रति सतर्क रहने की आवश्यकता हो सकती है जो उनके साथ डील करने में सतर्क न हों।
तीसरा, स्पष्ट रूप से सीमांकन विज्ञापनवर्ती समाचार जो आप उपयोग कर सकते हैं। प्रत्येक मीडिया उद्यम द्वारा अपनी पहुंच और प्रभाव के आधार पर ब्रांडेड कंटेंट के भुगतान में उपयोगितावादी कंटेंट भी राजस्व के अन्य स्रोत हैं।
चौथा, मल्टी-मीडिया कंटेंट प्रदाताओं और संपादकों में निवेश कर उन्हें मोबाइल जर्नालिस्ट और मल्टी-मीडिया एडिटर बनाना तथा दूसरी ओर मल्टीमीडिया ब्रांड और सेल्स प्रोफेशन राजस्व वृद्धि के साधन हो सकता हैं जो बाजार में प्रोडक्ट को अच्छी तरह से बेचने के लिए विशेष पैकेज विकसित कर सकते हैं।
और अंत में पांचवां, , ऑनलाइन राजस्व बढ़ाने के प्रयास में आपके पास वीडियो, ऑडियो, टेक्स्ट और छवियों को एक साथ समाचार, विचार, पूर्वावलोकन और प्रतिक्रियाओं के साथ एकीकृत करने का विशिष्ट तरीका होना चाहिए। इसके साथ-साथ, यह रियल एस्टेट, लोगों, डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क और फीडबैक चैनलों में विरासती मीडिया की लागत को कम कर देगा।
डिजिटल और प्रिंट संस्करण के राजस्व को भी इसके माध्यम से देखा जा सकता है, यही कि लगभग 93% हिस्सा प्रिंट माध्यम से आता है। ऐसी स्थित में प्रिंट मीडिया के विलुप्त होने की अवधारणा एक रोचक उपकल्पना मानी जा सकती है। जबकि क्षेत्रीय समाचारपत्रों के आंकड़े देखने से यह पता चलता है कि एशिया और लैटिन अमेरिका में प्रिंट संस्करण विकास की ओर अग्रसर हैं जिसमें भारत के प्रिंट मीडिया की भूमिका को नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं।
हालांकि इंटरनेट प्रौद्योगिकी के विकास ने प्रिंट मीडिया के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगाये हैं परंतु यह भी देखना होगा कि प्रिंट को इस माध्यम से कितनी चुनौती मिलती है। फिलहाल तो भारत में प्रिंट को इस से चुनौती मिलती नहीं दिख रही है क्यूंकि यहां प्रिंट मीडिया ने डिजिटलीकरण की ओर अपने कदम तेजी से आगे बढ़ा दिए हैं।
इस संदर्भ में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भारत में प्रिंट मीडिया के लिए रोव डावसन के विलुप्तप्राय होने के समयकाल से डरने की जरुरत नहीं है। भविष्य अभी बेहतर है, हां यह बात अलग है प्रिंट मीडिया का भविष्य हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाई पत्रकारिता पर ज्यादा निर्भर करने लगा है। रॉबिन जेफ्री ने समाज में प्रिंट मीडिया के विकास हेतु तीन चरणों की बात की है –‘रेयर’, ‘एलिट’ और ‘मास’। अभी तो भारत ने ‘मास’ चरण में प्रवेश ही किया है अत: प्रिंट मीडिया का भविष्य भारतीय परिदृश्य में ज्यादा सुरक्षित है।
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प्रोफेसर उज्ज्वल के चौधरी: लेखक दिल्ली और मुंबई में स्थिति पर्ल अकादमी के स्कूल ऑफ मीडिया में स्कूल हेड हैं। लेखक एक प्रसिद्ध मीडिया अकादमिक और स्तंभकार भी हैं। वह पूर्व में सिम्बियोसिस, एमिटी और व्हिस्लिंग वुड्स के डीन भी रह चुके हैं। लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने निजी विचार हैं।)
विकास पाण्डेय ‘उत्तंक’: लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद् हैं। राजनीतिक विश्लेषक एवं मीडिया मामलों में लंबे शोध का अनुभव रखते हैं। वह प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में विभिन्न विषयों पर लिखते रहे हैं। लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने निजी विचार हैं।)

