
चुनावी मौसम में किसानो की कर्जमाफी इन दिनों सुर्ख़ियों में है| पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के बाद छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में किसानो की कर्जमाफी का मुद्दा सबसे गर्म था जिसमें अब यह भी खबर है कि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की सरकार ने किसानो की कर्जमाफी की घोषणा कर दी है| इससे पहले महाराष्ट्र सरकार ने पिछले साल किसानो का 30 हज़ार करोड़ क़र्ज़ माफ़ करने की घोषणा की थी| भले ही राज्य सरकार किसानो के लिए कर्जमाफी जैसे लोकलुभावन घोषणाएं करती है लेकिन क्या कर्जमाफी मात्र से किसानो की समस्या का हल है?
बुनियादी सुविधाओं की कमी
किसानो की कर्जमाफी के अलावा बुनियादी सुविधाओं की भारी कमी है जिसमें बिजली, पानी, और औद्योगिक ऊर्जा जैसी विकट समस्याएँ हैं और नई परियोजनाओं को शुरू करने में बड़ी बाधा बनती हैं| भारत के पास काम करने वालों की कमी नहीं है लेकिन उनको खपाने और उनका लाभ उठाने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं| नतीजतन श्रम-सक्षमता के आंकड़े में भारत 144 देशों में 121वें स्थान पर है| यह विसंगति देश में आय असमानता और अमीर-गरीब के बीच लगातार चौड़ी होती खाई का भी कारण है|
Related Article:नोटबंदी से भारत के किसानो पर बुरा प्रभाव पड़ा: कृषि मंत्रालय
मोदी सरकार ‘सबका साथ सबका विकास’ के नारे के साथ सत्ता में आई थी जिसमें किसानो के विकास को लेकर उम्मीद जगी थी परंतु साढ़े चार वर्षों के दौरान देशव्यापी किसान आंदोलन इस बात का साबुत रहा कि किसानो की जिंदगी सरकार बदलने से भी बेहतर नहीं हो पाई| पीएम नरेंद्र मोदी ने बतौर गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में विकास की दिशा में बहुत कार्य किया किन्तु पूरे देश की अर्थव्यवस्था को बदलने में बेहतर साबित नहीं हो पाई| सिर्फ़ नई योजनाएं बनाना काफी नहीं उनको लागू करने के लिए इन मूल समस्याओं पर ध्यान देना ज़्यादा ज़रूरी है|
दरअसल बीते सालों में कृषि क्षेत्र के अंतर्गत दो समानांतर मोर्चों पर बड़े बदलाव हुए हैं लेकिन सिर्फ अनाज उत्पादन पर ध्यान देने की वजह से सरकार उनकी तरफ से आंखें मूंदे रही| यही बदलाव आज खेती के सामने आ रही चुनौतियों के मूल में हैं| पिछले एक दशक के दौरान ट्यूबवेल से सिंचाई और खाद-रसायनों के रूप में खेती की लागत खूब बढ़ी है| इसके साथ ही किसान फल-सब्जी की खेती की तरफ भी मुड़े हैं लेकिन यही फसलें हैं जिनके जल्दी खराब होने का जोखिम होता है|
मध्य प्रदेश में ही फल-सब्जियों का उत्पादन 2013-14 के बाद तीन सालों में दोगुना हो चुका है यानी खेती में इस तरह के बुनियादी बदलाव आ चुके हैं फिर भी नीतियां आज भी वही हैं| इनके केंद्र में आज भी अनाज आधारित अर्थव्यवस्था है| इस बीच जलवायु परिवर्तन भी एक कारण है जिसने खेती से जुड़े जोखिम को और बढ़ा दिया है| इन हालात में नोटबंदी ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए घातक साबित हुई है|
Related Article:नाराज़ किसानो को मनाने में जुटी मोदी सरकार
इस समय इन चुनौतियों से पार पाने का यही तरीका है कि केंद्र और राज्य सरकारें कृषि से जुड़ी अपनी नीतियों में बड़े बदलाव करें| नीतियां ऐसी होनी चाहिए कि खेती में बदलाव के साथ अपनी दशा-दिशा भी बदल सकें| सरकार को ऐसी ढांचागत सुविधाएं विकसित करने की जरूरत है जो किसानों को शहरी बाजारों से जोड़ सकें जहां उन्हें उनके फल-सब्जियों की सही कीमत मिल सके| सरकार ने तीन साल पहले मूल्य स्थिरीकरण कोष (पीएसएफ) बनाया था| फसलों की कीमत एक निश्चित सीमा से नीचे जाने पर सरकार इस कोष के माध्यम से उत्पादकों को राहत देती है लेकिन इस तरह की योजनाएं भी तभी कारगर हो सकती हैं जब किसानों को नई तरह की फसलें बेचने की बुनियादी सुविधाएं मिल पाएं|
भारत की कृषि अर्थव्यवस्था आर्थिक गतिविधियों के दूसरे हिस्सों से बंधी हुई है| इसलिए दूसरे क्षेत्रों, जैसे बिजली आपूर्ति में सुधार का सीधा असर खेती-किसानी पर पड़ता है| कुल मिलाकर आज की हालत में कर्जमाफी जैसे फौरी उपायों से कुछ नहीं होने वाला है| अब कृषि संकट को दूर करने का एक ही तरीका है कि सरकार अनाज केंद्रित नीतियों से ध्यान हटाकर दूसरी फसलों के लिए बेहतर और कारगर नीतियां बनाए|

