भारतीय खेल जगत की बात की जाए तो अक्सर ज़हन में पहले क्रिकेट का नाम आता है| हमारे देश में क्रिकेटरों को जितना सम्मान और महत्व दिया जाता है उतना शायद ही किसी और खिलाड़ियों को दिया जाता है लेकिन यहाँ बात क्रिकेट खिलाड़ी की नहीं बल्कि एशियाई खिलाड़ी के गोल्ड मेडलिस्ट हकम भट्टल (64) की हो रही है जो आज एक अस्पताल में मौत की जंग लड़ रहे है|
1978 में एशियाई खेलों स्वर्ण पदक विजेता (20 किमी दौड़) हाकम भट्टल पंजाब के संगरूर के एक निजी अस्पताल में अपनी किडनी और जिगर की बीमारियों से लड़ रहे हैं। जब भट्टाल से पूछा गया कि क्या उन्हें सरकार से कोई मदद मिली है, तो उन्होंने कहा, “नहीं, सरकार मेरी मदद नहीं कर रही है।” उन्होंने कहा, “मैं गरीब हूं, मैं सरकार से मेरी मदद करने का अनुरोध करता हूं।”
कौन है हकम भट्टल ?
हकम भट्टल की पहचान केवल एशियाई खिलाड़ी के रूप में ही नहीं बल्कि एक भारतीय सेना के रूप में भी की जाती है| उन्होंने 1972 में 6 सिख रेजिमेंट में हवलदार के तौर पर ज्वाइन किया था| 1981 में एक चोट के कारण हकम भट्टल ने खेलना छोड़ दिया था जिसके बाद वे भारतीय सेना में शामिल हो गए| 1987 में सेना से रिटायर होने के बाद पंजाब पुलिस ने 2003 में उन्हें एथलेटिक्स कोच के तौर पर कॉन्स्टेबल रैंक की नौकरी दे दी गई और यहां से वह 2014 में रिटायर हुए| इसके साथ एक ख़ास बात यह भी है जो इनके व्यक्तित्व में चार चाँद लगाती है वह है 1978 में बैंकॉक एशियन गेम्स में और 1979 में, जापान (टोक्यो), एशियन ट्रेक एंड फील्ड में गोल्ड मेडल जीतने वाले हकम भट्टल को 2010 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने स्पोर्ट्स एंड गेम्स में उपलब्धियों के लिए ध्यान चंद अवॉर्ड से भी सम्मानित गया था|
जीवन और मौत की लड़ रहे लड़ाई, कोई सरकारी मदद नहीं –
आज हकम भट्टल जीवन और मौत की लड़ाई लड़ रहें है और इसके लिए सरकार की ओर से न कोई आर्थिक सहायता मिल रही है और न ही उन्हें कोई पूछने वाला है| उन्हें सात हज़ार रुपए मात्र की पेंशन मिलती है, ऐसे में किडनी और लिवर की बीमारी का इलाज करा पाना संभव नहीं है| उन्हें बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं मिल सकें, इसके लिए उन्हें सरकारी मदद की सख्त ज़रूरत है लेकिन राज्य सरकार, प्रशासन या केंद्र की तरफ से उन्हें अब तक कोई मदद नहीं मिली है|
हकम भट्टल की पत्नी ने मीडिया से कहा कि ‘खिलाड़ी जब मेडल जीतता है तब तो बल्ले-बल्ले हो जाती है पर बाद में उन्हें कोई नहीं पूछता| उन्हें अपने ही हाल पर मरने के लिए छोड़ दिया जाता है| हमारे पास जो पैसा था वो इनके इलाज में लग चुका है| पैसे खत्म होने के कारण अब इन्हें वापस गांव ले जाने की नौबत आ गई है| सरकार की तरफ से अभी कोई मदद नहीं मिली है| हम गरीब लोग हैं और हमें सरकार से मदद की ज़रूरत है| हमारे पास गांव में सिर्फ दो एकड़ जमीन है एवं सात हजार पेंशन मिलती है उसी से ही हमारा गुजारा चल रहा है|’
यह हमारे देश और खेल जगत के लिए बड़ी ही शर्मनाक बात है कि जो राष्ट्रीय और अंतराष्टीय स्तर पर देश का नाम ऊँचा किया उसे ही जीवन के अंतिम पड़ाव में मरने के लिए अकेला छोड़ दिया गया| भारत में वैसे अमीर खिलाड़ियों की कमी नहीं है जिसमें क्रिकेट खिलाड़ियों का नाम पहले नंबर पर है लेकिन वहीँ दूसरी ओर दुसरे खेल जगत की बात की जाए तो शायद ही किसी खिलाड़ी का नाम जुबानी याद हो और इसकी सबसे बड़ी वजह है कि यहाँ क्रिकेट के अलावा दुसरे खिलाड़ियों को पूछा तक नहीं जाता है| इन्हें तब तक याद रखा जाता है जब वे टीवी या अखबारों में भारत का नाम ऊँचा किया हो लेकिन इसके बाद इन्हें और इनके नाम को केवल जनरल नॉलेज के लिए ही याद रखा जाता है|
हमारे देश की सरकार भी बड़ी-बड़ी बातें और दावे करती दिखती है विशेषकर गरीबों के लिए लेकिन हमारी सरकार उस अन्तराष्ट्रीय खिलाड़ी की मदद एक गरीब के तौर पर भी करती नहीं दिख रही| आप खुद सोचिए यदि हकम भट्टल की जगह कोई भारतीय क्रिकेटर अस्पताल में जीवन और मौत का संघर्ष कर रहा होता तब देश का क्या मंज़र होता बताने की ज़रूरत नहीं| बहरहाल, जिनसे आखरी उम्मीद थी वह सरकार तो कोई मदद मुहैया नहीं की लेकिन दुआ ज़रूर कर सकते है कि ईश्वर उनकी मदद करें|

