
सुप्रीम कोर्ट ने भूमि अधिग्रहण कानून में 2013 में किए गए संशोधनों को चुनौती देने वाली याचिका पर सोमवार को पांच राज्यों को नोटिस जारी किए| जस्टिस मदन बी लोकुर और जस्टिस दीपक गुप्ता की पीठ ने इन संशोधनों को खत्म करने की मांग वाली याचिका को सुनवाई के लिए स्वीकार भी कर लिया है| भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनस्र्थापना में उचित मुआवजा और पारदर्शिता अधिकार अधिनियम, 2013 में गुजरात, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और झारखंड ने विरोधाभासी संशोधन किए हैं|
मेधा पाटकर समेत कार्यकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में अधिनियम में बदलावों को चुनौती दी है| उन्होंने आरोप लगाया है कि राज्य सरकार द्वारा 2013 के कानून में संशोधन केंद्रीय अधिनियम की मूल संरचना के खिलाफ है|
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याचिका में उचित मुआवजे का अधिकार और भूमि अधिग्रहण में पारदर्शिता, पुनर्वास कानून, 2013 में किए गए संशोधनों को चुनौती दी गई है| इस याचिका में कहा गया है कि भूमि अधिग्रहण कानून में किए गए इन संशोधनों को निरस्त किया जाए क्योंकि ये भूस्वामियों और किसानों के आजीविका के अधिकारों को प्रभावित करते हैं|
याचिकाकर्ता के वकील प्रशांत भूषण ने पीठ से कहा कि इस कानून का सार भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया में जनता से मशविरा सुनिश्चित करना था परंतु राज्यों द्वारा किए गए इन संशोधनों ने इन महत्वपूर्ण पहलुओं से छूट दे दी| पीठ ने भूषण से कहा कि कानून के तहत राज्य इनमें संशोधन कर सकते हैं यदि विधान सभा ऐसा करना चाहती है और हम यह नहीं कह सकते कि आप ऐसा नहीं कर सकते हैं| भूषण का कहना था कि 2014 में सत्ता में आने वाली सरकार ने 2013 के कानून में संशोधन किए परंतु इसे संसद ने पारित नहीं किया है|
उन्होंने कहा कि इस मामले में अध्यादेश लाया गया था जो 31 अगस्त, 2015 को समाप्त हो गया| उन्होंने दावा किया कि संसद में संशोधन पारित कराने में विफल रहने के बाद उन्होंने राज्यों से कहा कि वे इस संशोधन का इस्तेमाल करें। इन राज्यों द्वारा केन्द्रीय कानून और नियमों में किए गए संशोधनों का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि औद्योगिक गलियारे, एक्सप्रेसवे, और राजमार्ग जैसी सभी परियोजनाओं के सामाजिक प्रभाव का आकलन, विशेषज्ञों की राय, जन सुनवाई, आपत्तियां और खाद्य सुरक्षा की संरक्षा से संबंधित प्रावधानों से एक तरह से छूट दे दी गई| सुनवाई के दौरान पीठ ने जानना चाहा कि याचिकाकर्ता संबंधित उच्च न्यायालयों में क्यों नहीं गया? इस पर भूषण ने कहा कि चूंकि कई राज्यों ने 2013 में कानून में संशोधन किए थे इसलिए हम शीर्ष अदालत में आए हैं।
बता दें कि 2014 में तमिलनाडु सरकार ने केंद्रीय कानून में संशोधन को मंजूरी दी थी| 2016 में गुजरात सरकार ने सार्वजनिक परियोजनाओं के लिए अधिनियम को कमजोर कर दिया| इसी तरह झारखंड सरकार ने पिछले साल विभिन्न प्रयोजनों के लिए सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन की जरुरतों को छोड़कर संशोधन पारित किया|

