
गांधी ने मुझे खत लिखा कि वो मुझसे मिलना चाहते हैं। इसलिए मैं उनके पास गया और उनसे मिला, ये गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए जाने से ठीक पहले की बात है। फिर वह दूसरे दौर के गोलमेज़ सम्मेलन में आए, पहले दौर के सम्मेलन के लिए नहीं आए। उस दौरान वो वहां पांच–छह महीने रुके। उसी दौरान मैंने उनसे मुलाकात की और दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भी उनसे मुलाकात हुई। पूना समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद भी उन्होंने मुझसे मिलने को कहा। लिहाजा मैं उनसे मिलने के लिए गया।
जब गाँधी जी जेल में थे। यही वो वक्त था जब मैंने गांधी से मुलाकात की। लेकिन मैं हमेशा कहता रहा हूं कि तब मैं एक प्रतिद्वंद्वी की हैसियत से गांधी से मिला। मुझे लगता है कि मैं उन्हें अन्य लोगों की तुलना में बेहतर जानता हूं, क्योंकि उन्होंने मेरे सामने अपनी असलियत उजागर कर दी। मैं उस शख़्स के दिल में झांक सकता था। आमतौर पर भक्तों के रूप में उनके पास जाने पर कुछ नहीं दिखता, सिवाय बाहरी आवरण के, जो उन्होंने महात्मा के रूप में ओढ़ रखा था। लेकिन मैंने उन्हें एक इंसान की हैसियत से देखा, उनके अंदर के नंगे आदमी को देखा, लिहाजा मैं कह सकता हूं कि जो लोग उनसे जुड़े थे, मैं उनके मुकाबले बेहतर समझता हूं
सवाल: आपने जो भी देखा, उसके बारे में संक्षेप में क्या कहेंगे?
अम्बेडकर: ख़ैर, शुरू में मुझे यही कहना होगा कि मुझे आश्चर्य होता है जब बाहरी दुनिया और विशेषकर पश्चिमी दुनिया के लोग गांधी में दिलचस्पी रखते हैं। मैं समझ नहीं पा रहा हूं। वो भारत के इतिहास में एक प्रकरण था, वो कभी एक युग–निर्माता नहीं थे। गांधी पहले से ही इस देश के लोगों के ज़ेहन से ग़ायब हो चुके हैं। उनकी याद इसी कारण आती है कि कांग्रेस पार्टी उनके जन्मदिन या उनके जीवन से जुड़े किसी अन्य दिन सालाना छुट्टी देती है। हर साल सप्ताह में सात दिनों तक एक उत्सव मनाया जाता है। स्वाभाविक रूप से लोगों की स्मृति को पुनर्जीवित किया जाता है। लेकिन मुझे लगता है कि अगर ये कृत्रिम सांस नहीं दी जाती तो गांधी को लोग काफ़ी पहले भुला चुके होते।
सवाल: फिर जाति संरचना में हरिजन को भगवान के रूप में प्रस्तुत करने के पीछे उनका असली इरादा क्या था?
अम्बेडकर: वो सिर्फ़ ऐसा चाहते थे। अनुसूचित जाते के बारे में दो चीज़ें हैं। हम अस्पृश्यता समाप्त करना चाहते हैं। लेकिन साथ ही हम ये भी चाहते हैं कि हमें समान अवसर दिया जाना चाहिए ताकि हम अन्य वर्गों के स्तर तक पहुंच सकें। अस्पृश्यता को बिलकुल धो देना कोई अवधारणा नहीं है। हम पिछले 2000 वर्षों से अस्पृश्यता को ढो रहे हैं। किसी ने इसके बारे में चिंता नहीं की है। हां, कुछ कमियां हैं जो बहुत हानिकारक हैं। उदाहरण के लिए लोग पानी नहीं ले सकते हैं, लोगों के पास खेती करने और अपनी आजीविका कमाने के लिए भूमि नहीं हो सकती है।
सवाल: वो (गांधी) मंदिर में प्रवेश होने जैसे मुद्दों से संतुष्ट थे।
अम्बेडकर: वो मंदिर में प्रवेश का अधिकार देना चाहते थे। अब हिंदू मंदिरों की कोई परवाह नहीं करता। अस्पृश्य इस बात को अच्छी तरह समझ चुके हैं कि मंदिर जाने का कोई परिणाम नहीं है। वो अस्पृश्य ही बने रहेंगे, चाहे वो मंदिर जाएं अथवा नहीं। उदाहरण के लिए लोग अछूतों को रेलवे में यात्रा करने की इजाज़त नहीं देते। अब उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, क्योंकि रेलवे उनके लिए अलग से कोई व्यवस्था नहीं करने जा रही। वो ट्रेन में एक साथ यात्रा करते हैं। जब भी रेल में हिंदू और अस्पृश्य साथ यात्रा करते हैं तो वो अपनी पुरानी भूमिका में होते हैं।
सवालः तो क्या आप कहना चाहते हैं कि गांधी रूढ़िवादी हिंदू थे?
अम्बेडकर: हां, वो बिलकुल रूढ़िवादी हिन्दू थे। वो कभी एक सुधारक नहीं थे। उनकी ऐसी कोई सोच नहीं थी, वो अस्पृश्यता के बारे में सिर्फ़ इसलिए बात करते थे कि अस्पृश्यों को कांग्रेस के साथ जोड़ सकें। ये एक बात थी। दूसरी बात, वो चाहते थे कि अस्पृश्य स्वराज की उनकी अवधारणा का विरोध न करें.मुझे नहीं लगता कि इससे अधिक उन्होंने अस्पृश्यों के उत्थान के बारे में कुछ सोचा।
सवाल: क्या आपको लगता है कि गांधी के बिना राजनीतिक आज़ादी मिल सकती थी?
अम्बेडकर: जी हां. मैं निश्चित रूप से कह सकता हूं ये धीरे–धीरे हो सकता था। लेकिन व्यक्तिगत रूप से मुझे लगता है कि अगर स्वराज भारत में धीरे–धीरे आता तो ये लोगों के लिए फ़ायदेमंद होता। विकृ तियों से ग्रस्त हर समुदाय या लोगों का हर समूह स्वयं को मज़बूत करने में सक्षम होता, अगर ब्रिटिश सरकार से सत्ता हस्तांतरण धीरे–धीरे होता। आज हर चीज़ एक बाढ़ के समान आ गई है। लोग इसके लिए तैयार नहीं थे। मुझे अक्सर लगता है कि इंग्लैंड में लेबर पार्टी सबसे वाहियात पार्टी है।
सवाल: क्या गांधी में धीरज नहीं था, या कांग्रेस पार्टी में?
अम्बेडकर: मुझे नहीं मालूम कि अचानक एटली आज़ादी देने के लिए तैयार क्यों हो गए। ये एक गोपनीय विषय है, जो मुझे लगता है, कि एटली किसी दिन अपनी जीवनी में दुनिया के सामने लाएंगे। वो उस मुक़ाम तक कैसे पहुंचे। किसी ने अचानक इस बदलाव के बारे में नहीं सोचा था। किसी ने उम्मीद नहीं की थी। ये मुझे अपने आकलन से लगता है। मुझे लगता है कि लेबर पार्टी ने दो कारणों से ये फ़ैसला किया। सुभाष चन्द्र बोस की राष्ट्रीय सेना। इस देश पर राज कर रहे ब्रिटिश को पूरा भरोसा था कि देश को चाहे कुछ भी हो जाए और राजनीतिज्ञ चाहे कुछ भी कर लें, लेकिन इस मिट्टी के प्रति अपनी प्रतिबद्धता नहीं बदलेंगे।
दूसरी बात, जो मुझे लगती है, हालांकि मेरे पास ऐसा सबूत नहीं है, लेकिन मैं सोचता हूं कि ब्रिटिश सैनिक सेना को फ़ौरन समाप्त करना चाहते थे, ताकि वो नागरिक पेशे अपना सकें। आप जानते हैं कि सेना को धीरे–धीरे कम करने के पीछे कितनी नाराज़गी थी? क्योंकि जिन्हें सेना से नहीं निकाला गया था, वो सोचते थे, कि जिन लोगों को सेना से निकाल दिया गया है, वो उनका नागरिक पेशा हथिया रहे हैं और उनके साथ कितनी नाइंसाफ़ी हो रही है। लिहाज़ा भारत पर शासन करने के लिए पर्याप्त ब्रिटिश सेना रखना उनके लिए मुमकिन नहीं था।
तीसरी बात, मुझे लगता है कि इसके अलावा उन्होंने सोचा कि भारत से उन्हें सिर्फ़ वाणिज्य चाहिए था और सिविल सर्वेंट की पगार या सेना की आमदनी नहीं| ये तुच्छ चीज़ें थीं| व्यापार और वाणिज्य के रूप में इनका बलिदान करने में कोई हर्जा नहीं था. भारत आज़ाद हो जाए या उसकी स्थिति स्वीकृत डोमेन या उससे कमतर हो. लेकिन व्यापार और वाणिज्य बना रहना चाहिए. मैं इसके बारे में सुनिश्चित नहीं हूं, लेकिन मुझे व्यक्तिगत रूप से लगता है, लेबर पार्टी की मंशा यही रही होगी.
सवालः तो शायद ही उन्होंने… उन्होंने पूरी तरह राजनीतिज्ञ की तरह काम किया.
अम्बेडकर: राजनीतिज्ञ की तरह. वो कभी महात्मा नहीं थे। मैं उन्हें महात्मा कहने से इनकार करता हूं। मैंने अपनी ज़िंदगी में उन्हें कभी महात्मा नहीं कहा। वो इस पद के लायक़ कभी नहीं थे, नैतिकता के लिहाज़ से भी।

