
अनेक ऐसी बीमारियां होती हैं जो पालतू जीवों के संसर्ग से हो जाया करती हैं। मानव स्नेहिल भावनाओं से परिपूर्ण होता है। इन्हीं भावनाओं से उत्प्रेरित होकर वह कुत्ता, घोड़ा, गाय, भैंस, बैल, तोता, खरगोश आदि को पालता है और उनकी सेवा अपनी संतान की तरह ही करता है। उनके खान–पान से लेकर रहन–सहन के सभी दायित्वों को संभालते हुए समय समय पर उनके स्वास्थ्य का भी परीक्षण करवाया जाना चाहिए ताकि उसके पालतू जीव को कोई गंभीर बीमारी ग्रसित न करने पाये।
रेबीज एक ऐसी ही बीमारी है जो पालतू जानवर से ही मनुष्य तक पहुंचती है। यह बीमारी हर नियततापी प्राणी को हो सकती है।
हालांकि रेबीज लोगों में श्वानीय (कुत्ते द्वारा प्रसारित) रोग के नाम से अधिक जाना जाता है परंतु यह भी सच है कि जंगली या आवारा किस्म के सड़कों पर घूमने वाले जानवर इस रोग के सर्वाधिक वाहक होते हैं। लोगों में रेबीज का प्रकोप तभी हो सकता है जबकि इस रोग से ग्रसित जानवर या तो काट खाए या फिर मनुष्य के संसर्ग में अधिक रहे। रेबीज का जहर जानवर की लार में होता है। यह सामान्य चमड़े से किसी भी शरीर में प्रवेश नहीं कर पाता है जब तक कि इसका संसर्ग रक्त से न हो। इसका जहर तभी शरीर में प्रवेश करता है जब चमड़ी में घाव हो, कटा हुआ हो एवं ग्रसित जानवर इस जगह को चाट ले या फिर कहीं वह काट ले।
इसके अतिरिक्त मात्र कुत्ते को छूने से रेबीज का प्रसार नहीं होता। रेबीज का कीटाणु बहुत तेजी से शरीर की मांसपेशियों में जहां घाव हैं, वहां फैलता है। यह खून में नहीं अपितु, नसों द्वारा रीढ़ में और फिर मस्तिष्क में फैल जाता है। रेबीज के कीटाणु नसों के द्वारा मस्तिष्क में फैलने पर जानवर को घातक स्नायुविक और मानसिक (मस्तिष्क) रोग हो जाता है और अंतत: पशु की मौत हो जाती है। इसके प्रकट होने की अवधि दस दिनों से लेकर छह महीने तक की होती है। रेबीज की जांच खून या मल द्वारा नहीं करवाई जा सकती। इसके जीवाणु सर्वप्रथम जानवरों के तंत्रिका तंत्र पर ही हमला बोलते हैं। इसके बाद ही इसके जीवाणु दूसरे तंत्रों पर हमला करते हैं।
इसी कारण इसके जीवाणु का पता लगाने का सिर्फ एक ही उपाय और वह है मस्तिष्क की जांच करवाना जो मृत्यु के बाद ही संभव है। रेबीज से ग्रसित जानवर के व्यवहार में एकाएक निम्नानुसार परिवर्तन दिखाई देने लगते हैं। तेज तर्रार, स्वामीभक्त, आज्ञाकारी कुत्ता अचानक नर्वस स्नायुविक एवं संकोची हो जाता है। शांत स्वभाव के कुत्तों पर इसका उल्टा असर पड़ता है। वे अचानक अपने तेवर बदल लेते हैं या अत्यधिक स्नेही हो उठते हैं। रेबीज का तीसरा स्टेज अत्यधिक आक्रमणशील होता है। इस स्टेज में कुत्ता बिना कारण घूमता–फिरता रहता है तथा किसी भी काल्पनिक या वास्तविक चीज पर आक्रमण करता रहता है। – कुत्ते का निचला जबड़ा अक्सर खुला रहता है और लार टपकती रहती है।
इस अवस्था में कुत्ता न तो क्षोभशील ही रहता है और न ही आक्रमणशील। कुत्ते को लकवा मार जाता है। इस स्थिति को डम्ब रेबीज कहा जाता है। कुत्ते के साथ दुव्र्यवहार करना घातक हो सकता हैं। यूं तो जलांतक से ग्रसित जानवर की कोई चिकित्सा नहीं है। डॉक्टर औषधि के द्वारा कुत्ते को मृत्यु दे देते हैं ताकि जिंदा रहने पर वह किसी को काट न ले। इस बीमारी से ग्रसित कुत्ते को अकेला ही छोड़ देना चाहिए। कुत्ते को बिना दस्ताने पहने छुएं तक नहीं।
कुत्ता काट ले तो क्या करना चाहिए, पहले साबुन और पानी से घाव को अच्छी तरह धो लें। रैबिपूर, वेरोरब या मेरीरेयू नामक वैक्सीन चिकित्सक की सलाह लेकर लगावाएं। जब तक घाव भर न जाए तथा कुत्ते के विष से मुक्त होने का विश्वास न हो जाए, तब तक संभोग कतई न करें। कुत्ता काटे रोगी का जूठन किसी को खाने के लिए न दें क्योंकि ऐसा करना घातक भी हो सकता है।